लेखक – ( स्व.) श्री मूलचन्द संचेती
मूलचन्द सुगनकंवर संचेती चेरिटेबल ट्रस्ट,जोधपुर
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ओसवाल वंश
ओसवाल (Oswal, Oshwal or Osval) और महाजन वंश की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों, चारण और भाट की व्याख्या और जैन आचार्यों के विचारों में भिन्नता है। ज्यादातर मान्यता यह है कि आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरिजी, जो भगवान महावीर के छठे पट्टधर थे, ने निर्वाण संवत् 70 (भगवान महावीर के निर्वाण के 70 वर्ष पश्चात्) क्षत्रियों के व्यसन छुड़वा कर महाजन संघ की स्थापना की । ‘उपकेश गच्छ पटावली’ के अनुसार आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरिजी ने अपने चार्तुमास (वीर संवत् 70), जो कि उपकेशपुर पाटन (वर्तमान में ओसिया) में था, में वहाँ के राजा उत्पल देव और प्रजा को जैनी बनाया। इन प्रवचनों में उन्होंने 1500 साधु (पुरुष) और 3000 साध्वी (स्त्री) बनाये। इसके अलावा 1,40,000 प्रजाजनों ने जैन धर्म को अंगीकार किया और अहिंसा पर चलने का वचन लिया ।
यह समझा जाता है कि वीर संवत् 70 में सभी ओसवाल को महाजन संघ के नाम से जाना जाता था। वीर संवत् 222 में महाजन संघ का एक बड़ा सम्मेलन खंडेला गांव (जयपुर के पास) हुआ। इसमें शामिल महाजनों को उनके उत्पत्ति स्थान के आधार पर नामांकित किया गया।
औसियां (उपकेशपुर) से ओसवाल, श्रीमाल (भीनमाल ) से श्रीश्रीमाल, खंडेला (जयपुर) से खंडेलवाल, पाली से पालीवाल, अग्रोवा से अग्रवाल और प्रगवत नगर से पोरवाल संघ को जाना गया था। इस तरह यह समझा जाता है कि वीर संवत् 70 में महाजन वंश की उत्पत्ति हुई और वीर संवत् 222 में ओसवाल वंश का प्रार्दुभाव हुआ ।
एक अन्य व्याख्या के अनुसार श्रीमाल (भीनमाल ) के राजा ने एक आदेश प्रसारित किया कि उसके राज्य में लखपति के अलावा कोई नहीं रहेगा। इस तरह काफी संख्या में लोग वहाँ से निकल गये और मंडोवाद स्थान पर रहने लगे। मंडोवत को औसा (आगे or frontier) से भी जाना जाता है। काफी संख्या में श्रीमाल, बनिया, भाटी, चौहान, गहलोत, गौर, यादव और राजपूतों की अन्य कई शाखाओं के लोग मंडोवत (ओसा) में स्थापित हुए । आचार्य श्रीरत्नप्रभ सूरिजी ने उन सभी को जैन बनाया और ओसवाल जाति के अन्तर्गत लाये ।
इतिहासकारों के अनुसार ‘ओसवाल’ शब्द की उत्पत्ति राजस्थान के एक छोटे गाँव औसियाँ, (जिसे ओसियानोर (Osianor), ओएशा नगर, उपलेष पाटन, उपकेशपाटन, उरकेश, मेलापुर पाटन और नवमेरी के नाम से जाना जाता है), से जुड़ा हुआ है। यह गांव जोधपुर से 70 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में है। राजा उपलदेव और उसके योग्य मंत्री उहद का राज्य था। राजा सूर्यवंशी थे और मंत्री चन्द्रवंशी थे । आचार्य रत्नप्रभ सूरिजी के उपदेशों पर राजा, मंत्रियों और प्रजाजनों ने शराब और मांस का त्याग किया। आचार्य श्री ने इस नये समूह का नाम ओसवाल गच्छ’ दिया । कर्नल टोड के अनुसार सभी ओसवाल राजपूतों के वंश है। ओसियाँ गाँव में रह रहे राजपूत (प्रमुख पंवार, सोलंकी और भाटी) ओसवाल बने । ज्यादातर ओसवाल जैन धर्म को मानते है और कुछ वैष्णव (हिन्दू) भी है। ओसवाल जैन और ओसवाल वैष्णव में शादी सम्बन्ध आज भी होता है
ओसवाल उत्पत्ति दिवस
मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी के अनुसार सावन महिने की तिथी 14 (कृष्ण पक्ष ) ओसवाल वंश का उत्पत्ति दिवस है। सभी ओसवाल इस तिथी को प्रार्थना, त्याग और संयमपूर्वक मनाते है। इस वंश की कुलदेवी माँ जगत भवानी श्री सच्चियाय माताजी है । इनको ओसियाँ माताजी के नाम से भी जाना जाता है । औसियां ग्राम में पहाड़ी पर सच्चियाय माता (Sachchiyay Mata – Osiyan) का मन्दिर स्थित है। जैन समुदाय देवी के ललित और शान्ति स्वरूप की पूजा करता है ।
ओसवाल में गौत्र
विक्रम पूर्व 97 वर्ष (वीरात 373 वर्ष) में उपकेशपुर में भगवान महावीर की मूर्ति के वक्षस्थल पर प्रतिष्ठा के समय दो ग्रंथिया रह गई थी। जिसको छेदन करवाने के लिये टांकी लगते ही रक्त की धारा बहने लग गई और भारी उत्पात मच गया। उसकी शांति के लिए आचार्य श्री कक्कसूरिजी (द्वितीय) की अध्यक्षता में वृहद शांति पूजा करवाई गई। उस समय 18 गौत्र वाले धर्मज्ञ लोग स्नात्रिये बने थे (अगले पृष्ठ पर) जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में निम्न प्रकार से मिलता है :-
तप्त भयो 1, बप्पनाग 2 स्ततः, कर्णाट 3 गौत्रण ।
तुर्यो बला भ्यो 4, नामा उपि श्री श्रमल 5 पंचभस्तथा ।।
कुल भद्रो 6, मेरिपश्च 6, विरिहिध 8 छ्यो उष्टमः ।
श्रेष्ठि गौत्रण्य 9, मूंथासन पक्षे दक्षिण संदा के ॥
सूचिन्ता 10, डडदित्य नागौ 11, भूरि 12, भोद्राज्य 13 |
चिंचटि 14, कुंभट 15, डिडु 16, कान्यकुब्जौड़थ 17, भाख्यो डष्टमे जापिचा ।।
तथा अन्य श्रेष्ठि 18 गौत्रोयो महावीरस्या वामतः ।
नव तिष्ठन्ति गौत्राणि, पंचामृत महोत्सवे ।।
उपकेश गच्छ चरित्र ।
भगवान पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास – प्रथम भाग प्रष्ठ।।4।।
- रचियता आचार्य ज्ञानसुंदरजी महाराज
महाजन वंश के प्रथम 18 गौत्र
- तातेड़ (Tatahar or Tater)
- बाफना (बापनाग) (Bafna)
- करणावट (कर्णाट) (Karnavat)
- बलाड़ा (तुर्यो बलाभ्यो ) (Balah)
- मौरख (Moraksh)
- कुलहर (कुलभद्रो ) (Kulhat)
- विरहट (Virhat)
- श्रीश्रीमाल (Shri Shrimal)
- श्रेष्ठि ( Shresthi)
- संचेती (सुचांति) (सूचिन्तता) (Suchanti or Sancheti)
- आदित्यनाग (Aadityanag)
- भूरि (Bhuri)
- भदरा (Bhadra)
- चिंचट (Chinchat )
- कुंभट ( Kumat or Khumbhat)
- डिडू (Didu)
- कानोजिया (Kannojiya)
- लघुश्रेष्ठि (Laghushresthi)
आचार्य ज्ञानसुन्दरजी महाराज रचित निम्न काव्य में (अजयगढ़ चौमासा वि. सं. 2000 भाद्र वदी 2011) में भी 18 गौत्रों का वर्णन है ।
राजा मंत्री नागरिक सारा, गुरू उपदेश शिर पे धरा ।
सातदुर्व्यस दूर निवारी | सवा लाख संख्या नर नारी ।।
जिनके गौत्र प्रसिद्ध अठारा। तातेड़ बाफना कर्णावट सारा ।
बलाह गौत्र की रांका शाखा । मोरक्ष ते पोकरणा लाखा ।
बिरहट कूलट ने श्रीश्रीमाल । संचेती श्रेष्ठि उजमाल ।।
ओसवाल भोपालों का रासा (चाल चौपाई)
संचेती गौत्र और शाखाएँ
संचेती गौत्र का इतिहास करीब 2500 वर्ष पुराना है। यह उन अठारह (18) गौत्रों में है जिनकों आचार्य रत्नप्रभसूरिजी ने उपकेश नगर (औसिया) में बनाया था । ‘जैन जाति महोदया’ के अनुसार आचार्य श्रीजी ने इन 18 गोत्रों का नामकरण उनके व्यापार या स्थिति पर किया था । हमारा संचेती गौत्र परमार वंश, सोनगरा चौहान वंश, खींची चौहान वंश और अन्य राजपूत वंश से है। संचेती गौत्र की उत्पत्ती के बारे में जैन आचार्यों और इतिहासकारों में एक मत नहीं है ।
यति रामलालजी रचित महाजन वंश मुक्तावलि के अनुसार दिल्ली के राजा (जो सोनगरा चौहान थे) के पुत्र बोहित कुमार की वि. सं. 1026 बगीचे में खेलते हुए साँप के डसने से मृत्यु हो गई। राजा और सभी प्रजाजन अत्यन्त दुखी थे और रो रहे थे। उन्हें मृत मान श्मशान ले जाया जारहा था। आचार्य श्री जिनेश्वर सूरिजी या आचार्य श्री वर्धमान सूरिजी उस समय पास में ही विहार कर रहे थे और उन्होंने स्थिति को समझा । आचार्य ने राजा को संदेश भिजवाया कि अगर आप जैन धर्म को अंगीकार करने का वादा करे तो राजकुमर बोहित कुमार की जिन्दगी को वापस लाने का प्रयास किया जा सकता है। इस संदेश के स्वीकार करने पर आचार्य ने मंत्रों द्वारा राजकुमार को वापस जीवित किया और समस्त प्रजा ने ओसवाल धर्म को अंगीकार किया । इस गौत्र का नाम चिंता मुक्त कर सचेत ( बचाने ) करने पर सुचांति (संचेती) (Sunchanti- Sancheti) पड़ा। इस कथन की पुष्टि राजस्थान प्राच्य विद्या में उपलब्ध ‘ इतिहास ओस वंश’ और नाहर ग्रन्थाकार में उपलब्ध ‘महाजन की जात’ (श्री गोरधन व्यास) से भी होती है ।
एक अन्य टीका के अनुसार पंवार वंशीय राजा पृथ्वीधर ने गिरनार की यात्रा की । वहाँ किसी ने रात को भगवान नेमीचन्द के आभूषण चुरा लिये । प्रातः काल भगवान की पूजा अर्चना करते समय आभूषण न दिखने पर सभी के होश उड़ गये। बाद में भगवान के आशीर्वाद से चोर से गहने छुड़ा कर लाये और चिन्ता से मुक्त हुए। इस प्रकार चिंता करने और चिंता मुक्त होने पर संचेती गौत्र का प्रार्दुभाव हुआ ।
मेहता बलवंतसिंहजी के अनुसार संचेती गौत्र के प्रथम व्यक्ति एक बड़े थोक व्यापारी थे और संचय के कारण गौत्र का नाम संचेती पड़ा था ।
भाटों के विवरण (मेड़ता में श्री जतनराज मेहता के संग्रह में बहियों के अनुसार) के अनुसार संचेती परमार राजपूत थे । औसियां के राजा उपलदेव ने इस गौत्र का नाम संचेती रखा था। इसमें ढिलीवाल, धमाणी, बंब, चौधरी, गांधी, बैगणिया, कोठारी आदि शाखाओं का भी उल्लेख है।
संचेती गौत्र की मुख्य कुल देवी ओसियां माताजी सच्चियायदेवी है । संचेती गौत्र में अनेक सती हुए है, जो कुलदेवी के नाम से भी व्याख्यात है । जैसे चौपासनी वाले संचेती गौत्र की कुलदेवी सती अंची बाई है। हिंगलाज देवी व झंकारदेवी गुजरात में संचेती गौत्र की कुल देवी है ।
संचेती गौत्र की 44 शाखाएँ
ये निम्न है :- संचेति (सुचंति, साचेती), ढेलड़िया, धमानी, मोतिया, बिंबा, मालोत, लालोत, चौधरी, पालाणी, लघुसंचेती, मंत्रि, हुकमिया, कजारा, द्वीपा, गांधी, बेगाणिया, कोठारी, मालखा, छाछा, चितोड़िया, इसराणी, सोनी, मरुवा, घरघंटा, उदेचा, लघुचौधरी, चौसरिया, बापावत, संघवी, मुरगीपाल, कीकोला, लालोत, खरभंडारी, भोजावत, काटी, जाटा, तेजाणी, सहजाणी, सेणा, मन्दिरवाल, मालतीया, गुणीया ।
उपरोक्त शाखाओं की पुष्टि के लिये नीचे कुछ उदाहरण दिये जा रहे है ।
खरभंडारी (संचेती गौत्र की शाखा)
संचेती गौत्र की शाखा जो 12 शताब्दी में हुई थी ।
हिगल (संचेती गौत्र की शाखा)
सं.1369 ज्येष्ठ सुदि दिने श्री उपकेश ज्ञातौ सुचंति गौत्र हिंगल शाखाया सा. तुल्ला भार्या लानाई पुत्र नारायण भार्या नोकी, पुत्र राणा संगण सालु पेथा केन स्व मातृ पितृ श्री अजितनाथ बिंब करापितं प्रतिष्ठित्ं श्री उपकेशगच्छीय ककुंदाचार्य संताने श्री कक्कसूरि पट्टे श्री देवगुप्त सूरिजी । (बाबू लेखक – 1373)
सुहणणी (संचेती गौत्र की शाखा)
संवत् 1512 माघ सुदि 1 बुधे श्री ओसवाल ज्ञातों
सुहणाणी सुचिंती गो.सा. सांरंग भार्मा नयणी
पुत्र श्री मालेन भार्या खीमी पुत्र श्रीवंत युतेन
मार्तश्रेर्य श्री आदिनाथ बिंब कारितं उपकेश
गच्छे कक्कुदाचार्य सं. प्र. श्री कक्कू सूरिजी
- बाबू लेखक – 1373
(संदर्भ : भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास – प्रथम भाग)
संचेती गौत्र के आचार्य
संस्थापक आचार्य
हमारे संचेती गौत्र को बनाने वाले अभी तक की जानकारी के अनुसार चार आचार्य
(संस्थापक आचार्य) थे । इस गौत्र की स्थापना अलग-अलग राजपूत शाखाओं से बनी है।
प्रथम आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरिजी (प्रथम) – आपके बारे में वर्णन लेख में पहले ही दिया
जा चुका है।
द्वितीय आचार्य श्री वर्धमान सूरिजी – (वि. सं. 1026) आपके बारे में वर्णन लेख में पहले
ही दिया जा चुका है।
तृतीय आचार्य श्री जिनदत्त सूरिजी (प्रथम) (वि.सं. 1169 – वि.सं. 1211) ने 57 गौत्रों की स्थापन की जिनमें संचेती गौत्र 41 संख्या पर था । पुष्ठि के लिये अजमेर की दादावाड़ी में आचार्य के लेख है । मेरा ऐसा अनुमान है कि आचार्य श्री ने राजपूतों की शाखा खींची चौहान से संचेती गौत्र बनाया। यह भी अनुमान है कि आचार्य दादा गुरूजी ने एक लाख तीस हजार जैनी बनाएं।
चतुर्थ आचार्य श्री कक्क सूरिजी ने वैशाख सूदि 13, वि. सं. 1154 में चिंता मिटने से संचेती गौत्र की स्थापना की। इसकी पुष्ठि के मैने स्वगीय गुरांसा श्री नेमीचन्दजी (बालोतरा ) की धर्मपत्नि से प्राप्त लेख से की है ।
संचेती गौत्र परमार वासे : प्रागवाट ज्ञातीया
राजा बोहीथ नाडोल नारदपुरी पारण के भटारूक
- श्री कक्कसूरिजी
संचेती गौत्र के अन्य आचार्य
हमारे संचेती गौत्र को देतियमान करने वाले चार प्रमुख आचार्य थे ।
प्रथम आचार्य श्री यक्षदेवसूरिजी (चतुर्थ) (वि. सं. 218 से 235) आपके सांसारिक पिता शाह लखणजी थे । आपका गौत्र सुचंति था । आपका जन्म स्थान सत्यपुर (वर्तमान में सांचोर) है। आपके पिता के सात भाई थे और आपके भी सात भाई थे । आपका व्यापार हिन्दुस्तान के बाहर था । आपकी एक दुकान जावाद्वीप में थी । आपके छोटे भाई शाह धर्म, जो 748 शाहों में एक थे, ने वि. सं. 229 में सर्व तीर्थों का यात्रार्थं संघ निकाला और चतुर्विध श्रीसंघ के साथ यात्रा की । तीर्थ पर ध्वजारोहण कर बहुत्तर (72) लक्ष द्रव्य में संघमाला पहरी । संघपूज कर आपने सभी को एक-एक मुहर दी।
आपके पिता शाह लखण जी ने सत्यपुर ( सांचोर) में भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मंदिर बनाया। इस मंदिर में भगवान की 41 अंगुल सोने की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा करवाई | आपने शत्रुंजय का संघ निकाला । आदि चरित्र ग्रंथों के अनुसार आचार्य श्री ने 29 व्यक्तियों को दीक्षाऐं दी, 10 संघ निकाले और 27 मंदिरों की प्रतिष्ठाएं की। आपने कई ग्रन्थ लिखे जिनकी खोज करनी जरूरी है ।
कवित – रत्नं सुंचित वशमध्य, समतो श्री यक्षदेव स्तुतः ।
ज्ञानापार महोदधिः सुगदितो मुख्यो उभयव ग्रन्थ कृत । ।
साहित्यस्य विचार चारू सरणा वग्रे मतः सर्ववित ।
मोक्षेच्छून यम दिशत् सुरलमं मार्ग सुवन्द्य स्ततः । ।
इनके बाद संचेती गौत्र में द्वितीय आचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी हुए है, जिनका दीक्षाकाल विक्रम संवत् 837 से 892 तक है। आप पाल्हिका (मौजूदा पाली मारवाड़) में रहने वाले थे। आपके सांसारिक पिता का नाम शाह राणाजी और माताजी का नाम भूरि जी था । 9 आपके 11 भाई 6 बहिने थी । आपके पिता का व्यापार हिन्दुस्थान के सिवाय, चीन, जापान, मिश्र, जावा, बलोचिस्तान वगैरा आदि स्थानों में पेढ़ीये थी ।
कवित-
आचार्यस्तु स देवगुप्त इतियो गौत्रे सुंचिन्त्यात्मके
विद्यारत्न नयादि भूषित तया राज्ञां समूहैर्नुत ।
गच्छानापि सूरि रगमद्यस्थ समीपे स्वयं,
गूढ़ज्ञान विचार भव्य सरणो रन्तु मनाः श्रद्धया । ।
सूरिजी के सांसारिक पिता शाह राणा जी ने तीन बार संघ निकाला था, जिसमें अपने पाँच करोड़ खर्च किये थे। पाल्हिका आदि अन्य स्थानों पर सात मंदिर बनवाकर दर्शन पद की आराधना की । इनकी खोज करना जरूरी है। सूरिजी का सांसारिक नाम मल्ल था । आपके पिताश्री ने इनकी दीक्षा में नवलक्ष (9 लाख) द्रव्य खर्च किया था । आपका शासनकाल 55 वर्ष था, जिसमें पट्टावलियों व वंशावलियों आदि ग्रन्थों के अनुसार सूरिजी ने 35 को दीक्षाएं, 31 मंदिरों की प्रतिष्ठाएं, 18 संघ व अन्य शुभ कार्य हुए है।
संचेती गौत्र धर्म क्षेत्र यहाँ ही समाप्त नहीं होता है। उपरोक्त आचार्य के सिवाय आचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी हुए है जिनका शासन समय 680 से 728 वर्ष था ।
कवित –
धर्माचार विचारक कुलहटे श्री देवगुप्तो व्रती वादि व्रात पराज्यरच करणे यः कोऽपि कोपेड भवत्। तस्यै वायनिहे हितः सुदम ने माने मद नो रतः जातिं स्वां शिलिलां समीक्ष्य विदद्ये भव्या तदीयोन्नतिम् । ।
आचार्य देवगुप्तसूरिजी बाल ब्रह्मचारी थे । आपका जन्म स्थान नारदपुरी (मौजूदा में नाडोल) था। आपके पिता का नाम बीजा जी और माताजी का नाम वरजू था । आप संचेती गौत्र से थे । आपके पांच भाई व सात बहिने थी। आपका सांसारिक नाम पुनड़ था। आपने अपने शासनकाल में 32 पुरूषों को दीक्षाऐं दी, 34 मंदिरों की प्रतिष्ठाऐं और 17 संघ निकाले थे ।
अभी तक मैंने भगवान पार्श्वनाथ परम्परा के तीन संचेती गौत्र आचार्यों का
वर्णन किया और मैं अब भगवान महावीर की परम्परा के आचार्य श्री साधु कीर्ति जी, जो संचेती
गौत्र के थे, और जिन्होंने अकबर बादशाह को प्रथम जैन धर्म की महत्ता बताई, का वर्णन
करूंगा।
महोपाध्याय साधुकीर्ति जी –
श्री पुण्यसागर महोपाध्यायैः पाठकोद्ग धनराजै
अपि साधु कीर्तिगणना सुशोधिता दीर्घ दृष्टयम । । 26 ।।
पौषध विर्कधः प्रकरण टीका प्रशस्ति संघ पट्टके अवचूरिकारक और लघु अजित शान्तिस्तव के बाल व बोधकार महोपाध्याय साधुकीर्ति खरतर गच्छीय श्री जिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य श्री अमर माणिक्यगणि के प्रमुख शिष्य थे। वैसे आप ओसवाल वंशीय सुचिन्ती गौत्रीय वस्तुपाल खेमल देवी जालोर वालों के पुत्र थे । आपने सं. 1617 में युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि रचित पौषध विधि प्रकरण वृति का संशोधन किया और सं. 1625 में सम्राट अकबर की सभा में पौषध विधि विषय – तपागच्छीय बुद्धिसागर जी के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें निरूतर किया। आपके संबंध में आपके गुरू भ्राता कनकसोमकृत जइतपदवेली तथा जयनिधान कृत स्वर्गगमन गीत लिखे । आपने छोटे बड़े 23 ग्रन्थों की रचना की । सं. 1632 में श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था । सं. 1646 माघ वदी 14 को जालोर में आपका स्वर्गवास हुआ था ।
कवित –
भीनमाल सुँ ऊठिया जाय ओसियाँ बसाण ।
क्षत्रि हुआ शाख अठारा उठे ओसवाल कहाणा । ।
एक लाख चौरासी सहस घर राजकुली प्रति बोधिया ।
श्री रत्नप्रभ ओर ज्यां नगर ओसवाल जिन दिन किया ।
- जैन सम्प्रदाय शिक्षा – यति स्वगोर्यि श्रीपाल चन्द्र
संचेती गौत्र के मारवाड़ में कुलगुरू
संचेती गौत्र के अनेक कुल गुरू है। मारवाड़ में इस गौत्र के कुलगुरू चार है – प्रथम श्री हीराचंद जी (राजगढ़), द्वितीय श्री नेमीचंद जी (बालोतरा ), तृतीय श्री पारसमल जी और चतुर्थ श्री बादरमलजी (चाणौद) थे। इसके अलावा अन्य गुरांसा फतेहचंद जी, अनराजजी, पुरणमल जी व सुरेश कुमार जी चाणोद ( पाली जिले), गुरांसा मांगीलाल जी (उदयपुर), गुरांसा मोहनलाल जी (पोस्ट करेडा, भीलवाड़ा), गुरांसा मांगीलाल जी (बनोल वाया कांकरोली), श्री भैरूलाल जी महात्मा (रामसी वाया कपासना), गुरांसा श्री पन्नालाल जी ( कुवारिया), गुरांसा श्री तेजराज जी (आमेट), गुरांसा श्री मोहनलाल जी (हणादस जिला आबूरोड़), गुरांसा श्री रतनलाल जी महात्मा (नाहरो का मोहल्ला चित्तौड) और महात्मा श्री अम्बालाल जी भगवतीलाल जी (आकोला, इटालीवास, उदयपुर) का भी वर्णन आया हुआ है। यह सभी अनुसंधान का विषय है ।
गौरवमय संचेती गौत्र
संचेती गौत्र का इतिहास महान परम्पराओं से सज्जित है । परन्तु अपूर्ण जानकारियों के कारण हमारा गौत्र परिवार और समाज इससे अनजान है। मैंने उपलब्ध जानकारियों को संकलित करने का प्रयास किया है और आशा करता हूँ कि भविष्य में यह एक वृद्ध ग्रन्थ का जन्म लेगा ।
संचेती गौत्र के शूरवीर
महाजन संघ की प्राचीन कविता –
थान सुधीर रिणथंभ मान आपै महीपति ।
दुनियों सेवत द्वार सदा चित चकव्रत है संचति ।
आप हाथ उधमें करे उपकार जग केतही ।
पातशाह पोषी जे, जुगत दीखावे जैत सही ।
सरदर से इण संघ में सिरे, जगह जुग तारसी लीलो ।
‘मेहराज ‘सिंह’ दाता’ समुंद आद् सुत उदयो इसो
सेवत दुबार बड़े-बड़े भूपत, देख सभा सूरपति ही भूले ।
रइस धराधर सोभीत द्वारे, जैसे वनमे केसर फूले । ।
संचेती कुलदीपक प्रगट्यो, देख कविजन एसे बोले ।
सिंह मेहराज के नन्द करंद केहत कमीच सतरा रूसोलो ।।
संचेती गौत्र में ‘करण’ पदवी
संचेती गौत्र में शूरवीरों की कमी नहीं है। भाई उमराव करण जी के पूर्वजों में श्री रामसिंह जी सुपुत्र श्री उदेसिंह जी को रावल समरसिंहजी ने चित्तौड़ फतेह करने के बाद अपना दीवान बनाया। इसके बाद इनके अन्य वंशज श्री देवराज जी को महाराजा जसवंतसिंह जी प्रथम ने सम्वत् 1735 में ‘करण’ की पदवी दी थी जो आज भी इस वंश में चली आ रही है ।
संचेती गौत्र में दानवीर
संचेती गौत्र में कई दानवीर भी थे जिसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत है ।
शाह धर्मों पुत्र शाह लखण जी सत्यपुरी (सांचोर) ने वि. सं. 229 में संघ निकालकर निराधरों का आधार दिया और जैन धर्म के प्रचारार्थ करोड़ों का द्रव्य व्यय किया ।
शाहलाददूकजी संचेती (वि.सं. 892-952) ने दुकाल में सर्वापण किया ।
शाह राणाजी पालहिका (पाली मारवाड़) वि.सं. नवमी सदी में स्वधर्मी भाइयों की सेवा तन-मन-धन से करते थे । आपका हमेशा यह लक्ष्य होता कि स्वधर्मी भाई को सहयोग देकर उन्नत अवस्था में लाये । शाहराणा इतने उदारवृति वाले थे कि इनके घर के पास से कोई याचक निकल जाता तो उसकी आशा बिना भेदभाव के पूर्ण की जाती थी । इसी औदार्य एवं गाम्भीय गुण से राणा की शुभ कीर्ति चतुर्दिक में विस्तृत थी ।
शाहनाथाजी संचेती (रणकपुर) ने वि.सं. 1033 से 1074 के समय आचार्य सिद्धसूरि जी के उपदेश से दुकाल में करोड़ों का दान दिया ।
शाह विमल जी पुत्र वरधास जी गौत्र संचेती ने शाकम्मरी (मौजूदा सांभर) में सम्वत् 1070 में तीन दुष्कालों में तीन करोड़ और सात क्षेत्र में सात करोड़ द्रव्य व्यय किया था । आपने संघ पूजा करके लड्डू के अन्दर पांच-पांच मुहरें गुप्त रूप से सहधर्मियों को दी ।
संचेती गौत्र में संघ यात्रा और शिल्प
भगवान पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास भाग – 1 व 2 के अनुसार इस गौत्र में 26 संघ निकाले है जो जिसमें लाखों का ही नहीं, करोड़ों रूपयों का द्रव्य खर्च हुआ है।
कवित- रणथंभोर के संचेतीयों का संघ
मारवाड़ मेवाड़ सिंघ धरा सोरठ सारी ।
कस्मीर कांगरु गवाड गीरनार गन्धरी ।।
अलवर धरा आगरो छोडियो न तीर्थ थान ।
पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण पृथ्वी, प्रबयो भान ।।
नरलोक कोई पूज्या नहीं, संचेती धारे सारखो ।
चन्द्रभान नाम युग-युग अचल पट्ट पलटे धन पारखो । ।
शिल्पकला
शाह नौधण ने अपनी धर्मपत्नी की याद में खटकुंप नगर (खींवसर) वि. सं. चौथी सदी में एक कुआ बनाया ।
शाह वीरम की विधवा पुत्री ने विजयपुर में वि.सं. पांचवी सदी में एक तालाब बनाया ।
शाह नारायण ने धर्मपत्नी की याद में ने वीरपुर में छठी शताब्दी में एक कुआं खुदवाया ।
श्री नरसी जी संचेती ने अपनी माता रूकमणी जी के यादगार में वि.सं. बारहवी शताब्दी में बनावट (मौजूदा बनाड़ ), जोधपुर से 10 किलोमीटर दूर, में एक बावड़ी बनाई जिसमें एक लाख रूपया लगा ।
श्री वरधन (वि.सं. 1610) और श्री रूपे जेवंत (वि.सं. 1687) ने बदनोर और केरू गांव में प्रसादों का निर्माण किया ।
सेठ वृद्धिचंद जी संचेती ने सम्वत् 1924 में फलौदी ( फलवृद्धि) पार्श्वनाथ तीर्थ (मेड़ता रोड़) मंदिर के चारों ओर विशाल परकोटा बनाया, जो आज भी मौजूद है। आपने सं. 1915 में ग्वालियर से श्री सिद्धाचलजी का भी संघ निकाला था। आपके प्रपौत्र श्री हीराचंद जी ने अजमेर स्टेशन के सामने संचेती यात्री निवास बनाया ।
संचेती गौत्र में व्यापार
संचेती गौत्र के सदस्य व्यापार हिन्दुस्तान के अन्दर व बाहर करते थे । जिनमें मुख्य शाह लखण जी और धर्मोजी सत्यपुर (सांचोर) के (तीसरी सदी), शाह बीजा जी नारदपुरी (नाडोल) (सातवीं व आठवी सदी), शाह राणाजी पल्हिका (पाली) ( नवमी सदी), शाह पर्वतजी पुत्र वीरमसा माडव्यपुर (मंडोर), (दूसरी सदी) शाह लाघोजी पुत्र मोकलसा, माडवगढ़ (चौथी सदी), शाह आसो पुत्र चतरसा चित्रकोट (आठवी सदी), शाह अर्जुन सुपुत्र लालासा नगर उपकेशपुर (मौजूदा ओसियाँ) व शाह विमल सुपुत्र वरधासा स्थान शाकम्भरी (सांभर) (ग्यारहवीं सदी) थे।
मैं अब कुछ संचेती गौत्र के घराने जो राजस्थान से प्राचीन समय में बाहर गये हुए है, उनका वर्णन करूंगा।
क्र.सं. नाम स्थान अब कहाँ कार्य
- बाबू महताब चंद जी बीकानेर बिहार शरीफ जमीदार व व्यापारी
- सेठ रघुनाथ मल जी बवाचया (किशनगढ़) लोणार (अकोला जिला) व्यापार
- सेठ थानमल जी डूंडला (मारवाड़) चिगनपेट (मद्रास) व्यापार
- सेठ बालचंद जी मोमासर (बीकानेर) कलकत्ता व्यापार
- सेठ रूपचंद जी डांवरा बिजापुर (निजाम स्टेट) व्यापार
- सेठ जोग जी बवायचा लोनार (आकोला) व्यापार
- सेठ हीराचंद जी डांवरा (मारवाड़) इन्दौर से पूना व्यापार
पूना में संचेती गौत्र का शफाखाना :- पूना में श्री हीराचंद जी संचेती के नाम से बना हुआ है। जिसकी लागत करीब एक करोड़ रूपया है । इसके मुख्य डॉक्टर साहिब श्री के. एच. संचेती है, जो अंतराष्ट्रीय क्षेत्र में विख्यात है ।
संचेती गौत्र में मंदिर प्रतिष्ठाएं और सती
भगवान पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास भाग 1 व 2 रचयिता आचार्य श्री ज्ञानसुन्दरसूरिजी द्वारा व अन्य पुस्तकों के अनुसार संचेती गौत्र के सदस्यों ने समय-समय पर व भिन्न-भिन्न आचार्यों के उपदेशों से वि. पूर्व सम्वत् 12 से सम्वत् 150 तक करीब 44 मंदिर बनाकर उनकी प्रतिष्ठाएं कराई है। अयोध्या में श्री अजीतनाथजी के मन्दिर में सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के लेखों से ज्ञात होता है कि सुचिंती (संचेती) गौत्र के शाह नान्ना (आना) पुत्र शाह भीकूजी ने अपने माता-पिता की याद में भगवान श्री शान्तिनाथजी का बिम्ब स्थापित किया, जो आज भी मौजूद है ।
मंदिर की प्रतिष्ठा के लेख – वि. सं. 243 फाल्गुण सुदी 11 सुचिंती गौत्र शा. आना
माना केन श्री पार्श्वनाथ बिंब करापिंत प्रतिष्ठा कनक
सुरिभो । (पृष्ठ 157)
भीनमाल नगर में सुचिंती गौत्र शाह पेथड हरराज ने वि.सं. 358 में आचार्य श्री देवगुप्तसुर के उपदेश से भगवान श्री ऋषभदेव जी का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा देवगुप्त सुरि ने की ( पृष्ठ 151 ) । एक अन्य विवरण के अनुसार वि. सं. 587 माघ सुदी 5 उपकेशवंशे संचेती गौत्र नागड केन श्री शान्तिनाथ बिम्ब करापित् पू. श्री उपकेश गच्छ गुप्तसूरि भी ।
बीकानेर लेख संग्रह – रचयिता – श्री भंवरलाल जी नाहटा (पृष्ठ नं. 354 हनुमानगढ़ –
लेख नं. 2533) सं. 1599 वर्षे मागसिर वदि 5 सुचिंति गौत्र धामाणी शाखायां सा. तोल्हा भा.
तोल्ह – सिरि पुत्र : सा. हासा भा. हांसदे पुत्र साडाकेन भा. सकतादे पुतेन स्वपुण्यार्थ श्री कुंथुनाथ
बिंब का प. श्री उपकेश गच्छे श्री देवगुप्तसूरिभिः / नागपुर वास्तव्य ।
संचेती गौत्र में सतिये
इतिहास में संचेती गौत्र में काफी बार सती होने का जिक्र हुआ है। इस पर अनुसंधान होना
जरूरी है। विभिन्न सती स्थलों की निम्न जानकारी उपलब्ध है ।
क्र.सं. स्थान पति का नाम समय
- चौपड़ स्थान मंत्री गहलडा चौथवी सदी
- कीरांट कुम्प सपरथ चौथवी सदी
- दांतिपुर टोलो पांचवी सदी
- मुग्धपुर मंत्री मोकल छठी सदी
इनके सिवाय अलवर से बारह किलोमीटर ग्राम बाहदुरपुर में संचेती गौत्र में सती हुई,
जिसकी छतरी मौजूद है |
डॉवरा में सती स्थान
डांवरा गांव में संचेतीयों का एक सती स्थान है। यहाँ संचेती बास की पोल के बाहर सती का हाथ है, जिसकी पूजा संचेती परिवार आज भी करता है ( संलग्न चित्र) । संचेती परिवार में डांवरा में शादी के वक्त काक तोरड़ इसी पोल पर बांधा जाता है और सवा महीने तक बांधे रखा जाता है । मृत्यु के पश्चात भी इसी पोल से निकलते हुए शमशान जाते है ।
चौपासनी में सती स्थान
जुंजार अखेराज जी
चौपासनी में संचेती गौत्र के तीन जुंजार हुए। ये शायद वीर दुर्गादास जी राठोड़ के पहिले के है। प्रथम जुंजार (संदर्भ अस्पष्ट) की प्रतिमा बंध फूट के समय बह गई थी । आप संचेती गौत्र के थे। इसके 45 साल बाद एक और जुंजार हुए (संदर्भ अस्पष्ट ) ।
तृतीय जुंजार दादा साहिब श्री अखेराज जी साहब थे । इनके समय और स्थान के बारें में इतिहास अस्पष्ट है । बर्जुगों की याद के अनुसार दादा साहिब राज्य की तरफ से लड़ाई में गये थे और शहीद हो गये थे ।
समय : अनुमान अनुसार दादा साहिब माघ सुदि सातम (7) संवत् 1742 को युद्ध में वीरगति प्राप्त हुए ।
स्थान : शाही फौज और स्थानीय वीरों में जगह-जगह पर लड़ाई होती गई । एक बड़ी लड़ाई वि.सं. 1741 में भाद्राजुन ( रोहट और जालोर के मध्य ) हुई। इसके बाद छोटी-छोटी लड़ाइया होती गई। वि.सं. 1742 (ईस्वी सन् 1685) के लगते ही कूंपावत वीरों ने काएाएगो में शाही सेनापति पुरदिल खा पर हमला कर मार डाला और चैत्र सुदी 8 (ई.सं 2 अप्रेल 1685) को सिवाने का किला छीन लिया (संदर्भ मअसिरे आलमगिरि पृष्ठ 192,256)
मुगलों की शाही फोज ने जोधा उदयभान पर भाद्राजून में चढ़ाई की थी, परन्तु युद्ध में उदयभान के आगे सफल न हो पाई । जुंजार अखेराज जी साहिब इसी युद्ध में माघ सुदि 7 को
वीरगति प्राप्त हुए । राजरूपक (पृष्ठ 111) और अजित ग्रन्थ (छंद 1112) में इस घटना का माघ सुदि7 का होना लिखा है ।
एक अन्य वर्णन के अनुसार दादा साहिब का नाम श्री अभयकरण सिंह जी (करण और सिंह पदवी ) था और गाजियाबाद की लड़ाई में वि.सं. 1742 में देवलोक हुए। इनकी प्रतिमा
जगनाथसिंह मठ, गाजियाबाद में है जो घोड़े सहित है ।
सती अंचीबाई
दादा साहिब श्री अखेराजजी के वीरगति प्राप्त होने का समाचार राज्य की तरफ से पत्र द्वारा भेजा गया। दादा साहिब के छोटे भाई ने पत्र प्राप्त कर 3 दिन तक छिपा कर रखा और काफी उदास थे। जब सती ने देवर से उदासी का कारण पूछा तो कुछ नहीं बोले । इस पर सती ने कहा कि क्या छुपा रहे हो और उदास हो ? मुझे सब मालूम हो गया है और मैं अब सती होऊंगी ।
इस पर गुसाई जी ने उनको कमरे में बैठा दिया और ताला लगा दिया । परन्तु कुछ समय पश्चात् सती के प्रताप से ताला अपने आप खुल गया। इस पर गुसाईजी ने अपनी स्वीकृति प्रदान की और माघ सुद 13 वि.सं. 1742 में चौपासनी में दादा साहिब की पाग और सिरपेच के साथ सती हुई। सती स्थल चौपासनी में पीपल वाले बेरे (स्काउट-गाईड मैदान) और श्मशान के बीच है। सती स्थल पर स्थापित मूर्ति के अध्ययन से पता चलता है कि दादा साहिब और दादी साहिब शिव के परम भक्त थे ( संलग्न चित्र) । मूर्ति के पीछे कमल का फूल है। सती का हाथ तीसरी नम्बर गली, चौपासनी ग्राम में स्थापित है (संलग्न चित्र) । सती माता के गीतों में दादीजी का नाम सैंया जी है और दादाजी का नाम अखेराज जी है। संचेती परिवार के सभी सदस्य माघ सूदि सातम को पूजा अर्चना करते है। सभी बच्चों का झडूला भी यहीं होता है और शादी के बाद जाते भी दी जाती है ।
संचेती गौत्र का विस्तार
मैं बड़े गर्व के साथ कह सकता हूँ कि संचेती गौत्र के सदस्य सारे हिन्दुस्तान में ही नहीं उसके बाहर भी है। प्राप्त जानकारी के अनुसार बीकानेर में ( 150 घर), पूना (150), मल्कापुर (125), मोमासर (80), बीजापुर (80), बीदासर (70), भीनासर (70), सूरत (70), जोधपुर (61), जयपुर (60), चुरू (60), सार्दुलपुर (60), नोखमण्डी (40), श्री गंगानगर ( 35 ), खोड़ा (पाली) (35), जगसिंहपुरा (20), किशनगढ़ (20), कोरणा (20), अलवर (18), हनुमानगढ़ (16), हिसार (16), मारवाड़ मथानियां ( 15 ), दुर्ग ( 14 ), राजनानगांव ( 14 ), भिलाई ( 14 ), डांवरा (11), रतनगढ़ ( 10 ), भीलवाड़ा (10), नोहर ( 10 ), सूरतगढ़ (10), पाली (9), एलनावास (8), चाड़वास (6), भादरा (6), इन्दौर (69), करणपुर (5), आसीन (3), पारसोली (3), संभुगढ़ (3), नेपाल (1) में है। इस सूची को और जानकारियाँ मिलने पर पूर्ण किया जायेगा ।
चौपासनी का संचेती परिवार
चौपासनी गांव का इतिहास
करीब 400 वर्ष पूर्व में यह गांव चम्वात ठाकुर साहिब के पास जागीर में था । बाद में यह जागीर जोधपुर के राजा ने वल्लभ मार्ग संप्रदाय को अंदाजन वि.सं. 16 वी सदी मे दी थी और इसका 1. प्रबंधन गुसाई जी ( गोस्वामी जी) के अंतर्गत आया था । वि. सं. 1753 में यह जागीर घी और धान की बहुत बड़ी मंडी थी । वर्तमान चौपासनी (जिसे चम्पा का बास से भी जाना जाता था) में 4 बास थे और आखिरी बास चौखा था। चौपासनी गांव को वर्तमान उम्मेद सागर बांध के पास तीन बार बसाया गया था । यह बांध ई. 1893 में महाराणा जसवन्तसिंहजी प्रथम ने बनाया था । भराव क्षमता से ज्यादा पानी होने पर यह बांध दो बार टूट गया था और साथ में समीप का चौपासनी गांव भी नष्ट हो गया था ।
प्रथम बार यह वर्तमान में उम्मेद सागर स्थान पर था और पानी में बह गया था ।
दूसरी बार उम्मेद सागर बांध बनने पर चौपासनी गांव उसके पास बसाया गया था । यहाँ श्रीनाथ जी का मंदिर भी था। आज से करीब 120 साल पहिले भारी वर्षा के बाद बांध टूट जाने पर यह गाँव बह गया था ।
ई 1930-1933 में जोधपुर महाराजा उम्मेदसिंहजी ने भारी काल पड़ने पर वर्तमान का उम्मेद सागर बांध बनाया था और उसके पास नया गांव (वर्तमान का चौपासनी गांव) बसाया था। इस बांध की भराव क्षमता 348 एम. सी. एफ. टी. है और इसका गेज 38 फीट है। क्षमता में यह बांध जोधपुर के कायलाना और अन्य तालाबों से बहुत ज्यादा है ।
वर्तमान में चौपसनी गाँव जोधपुर शहर (डिस्ट्रीक्ट जोधपुर) का हिस्सा है। यह जोधपुर के मध्य से करीब 10-12 किमी. दूर है । गाँव का प्रसिद्ध श्री श्याम मनोहर प्रभु मंदिर (चौपासनी नाथद्वारा) शुरू में गांव बसने के बाद भी पुरानी जगह बांध के पास ही था । वि.सं. 1957 में जूनी चौपासनी में जन्माष्टमी की पूर्व मध्यरात्रि में (श्री मुरलीधर जी गोस्वामी के समय) भारी बारिश के वजह से आपातकाल में यह मंदिर वर्तमान जगह लाया गया था । स्थापना अधूरी होने के कारण श्राप लगा और गांव में कोई वंशवृद्धि नहीं हुई। गांव को विधि विधान से स्थापित करने के लिये पूरा गांव खाली किया गया और मशीन वाले बेरे के पास एकत्रित हुआ ( अनुमानित समय वि.सं. 1972)। रात्रि भर जागरण और भजन कीर्तन हुए और सुबह भगवान श्री श्याम मनोहर प्रभु की मूर्ति को वर्तमान मंदिर में पूर्ण अनुष्ठानों के साथ स्थापित किया ।
गांव में 2 बेरे (कुए) है। प्रथम पीपल वाला बेरा जिसके पीछे वर्तमान सती माता (संचेती परिवार) का स्थान है। द्वितीय मशीन वाला बेरा (गौशाला और वर्तमान में कुबेरगढ़ स्थल ) है ।
चौपासनी के संचेती परिवार
इतिहास
संचेती गौत्र के हमारे परिवार का उदगम स्थल शायद कनोज (उत्तर प्रदेश) है। यहाँ से यह
परिवार जोधपुर जिले की बड़लू (वर्तमान में भोपालगढ़) पंचायत में आया था। बड़लू (भोपालगढ़) से यह परिवार डांवरा ग्राम (ओसियां तहसील) वि.सं. 1616 में आया था। यह गाँव
ओसियाँ से 13 किमी. दूर है। डांवरा ग्राम शुरू में भाटी (राजपूत) के पास था । फिर लडाई के बाद एक दिन के लिये ‘राइका’ के पास आया था । उसके बाद राजपूत राठौड़ों (करमसोत) ने
विजय प्राप्त की और उनके पास ही है ।
बड़लू (भोपालगढ़) से पांच जाति व्यापार के सिलसिले में डांवरा आई थी :- राजपूत राठौड़ (करमसोत), मेघवाल (बेगड़), ओसवाल (गुर्जर), संचेती (मूथा) और ढोली। डांवरा में संचेती का बास है तथा कभी यहाँ पर 200-250 परिवार थे। अभी यहाँ पर 11 घर संचेती के है तथा कुछ घर बंद भी पड़े है ।
डांवरा (दानवारा) गांव से करीब 300 – 325 साल पहिले हमारे दादासा श्री बीदोजी सा पहिले ढाढस (धुंधाड़ा) के पास पधारे थे । उनके साथ दादी साहिबा भी पधारी थी। डांवरा से पांच भाइयों का परिवार विभिन्न स्थानों पर निम्न प्रकार से गया था ।
डांवरा
कोरणा केरू कल्याणपुर बिठूजा जेठाणिया
(जोधपुर – बालोतरा हाइवे पर ) (बालोतरा-समदड़ी मार्ग पर)
भाकर ग्राम / चौपासनी ग्राम
चौपासनी ग्राम (नाथद्वारा) बसाने के लिये गुसाई जी ने केरू ठाकुर साहब से कुछ महाजन मांगे थे। इसलिये केरू से दो भाई, दादासा श्री सादोजी और दादासा श्री गोमोजी चौपासनी (नाथद्वारा) (चांपावतो का बास) पधारे थे । संचेती गौत्र के चौपासनी में उस वक्त 50 से ज्यादा घर थे । धीरे-धीरे कई परिवार में वंश वृद्धि नहीं हुई और काफी लोग बीमारी (प्लेग) में खत्म हो गये थे । इस परिवार का एक हिस्सा जोधपुर में बस गया था (संलग्न चित्रावली) । आज चौपासनी ग्राम में संचेती परिवार का कोई सदस्य नहीं है ।
दादासा श्री लिखमीचंद सा का मुख्य व्यापार चौपासनी के गांव चौखां में लेनदेन का था और आप जोधपुर आकर बस गये थे । उनके पुत्र श्री मूलचन्दसा (लेखक) वकालत और टैक्स प्रेक्टिस करते थे । दादासा श्री अचलदास सा का जूनीधान मंडी (जोधपुर) में कपड़े का व्यापार था और उनके बड़े पुत्र श्री धनराजसा व्यापार में और छोटे पुत्र श्री मोहनराजसा डी. आर. एम. ऑफिस जोधपुर में कार्यरत थे । दादासा श्री धूड़मलसा चुईखेदान (जिला राजनानगांव, मध्यप्रदेश (वर्तमान छत्तीसगढ़) चले गये थे ।
हमारे कुलगुरु बालोतरा वाले नेमीचंदसा गुरासा है और परमार हमारा नख है ।
सेवारामजी संचेती परिवार ( चौपासनी )
SEVARAJI
सरूपजी Sarupji
मोजीरामजी
Mojiramji
जयकिशनजी खुबजी प्रभुदानजी वेनजी Jaikishanji Khubji Prabhudanji Venji
सैनीदानजी
Sainidanji
चौथमलजी Chouthmalji
नवलोजी मगनोजी जवाहरमलजी कनीरामजी Navaloji Magnoji Jawarmalji Kaniramji
लिखमीचन्दजी Likhmichandji
बिरधीचंदजी धूरमलजी
Birdhichandji Dhoormalji
शिवलालजी
(Went in Adoption)
शिवलालजी
Shivlalji~Shivlalji
(Went in Adoption) (Came in Adoption)
मघराजजी जवारमलजी सुगनचंदजी हेमरामजी
Magrajji Jawaramalji Suganchandji Hemramji
अचलदासजी Achaldasji
धनराजजी मोहनराजजी
लिखमीचन्दजी Likhmichandji (Came in Adoption)
Dhanrajji
Mohanrajji
मूलचन्दजी Moolchandji
रामलालजी धन्नालालजी खुशालचंदजी टीकमचन्दजी Ramlalji Dhannalalji Khushal Tikamchandji
chandji
अशोकराज जब्बरराज महेन्द्रराज
Ashokraj Jabarraj Mahendraraj
↓
↓
चिराग
मयंक
Chirag
Mayank
दिलीपकुमार गणपतराज
Dilipkumar
Ganpatraj
सम्पतराज Sampatraj
इदकराज (राजेन्द्र)
Edakraj
अभिनव अभिषेक Abhinav Abhishek
गौरव
राजेश Rajesh Manoj Sunil
मनोज सुनील अनिल Gaurav
हितेष विक्रम
Hitesh
Vikram
Anil
संकलनकर्त्ता – स्व. श्री मोहनराजसा संचेती
हीराचन्द प्रतापचंद Heerachand Pratapchand
प्रकाशचंद सुरेशचंद
Prakashchand
Sureshchand
↓
↓
मनीष प्रशान्त प्रवीण अनन्त Manish Prashant Praveen Anant
शशांक
Shashank